कानपुर। भारतीय इतिहास हो या सनातनी परंपरा, इसमें गुरू-शिष्य का संबंध सबसे अनोखा संबंध और सबसे मजबूत रिश्ता बताया जाता है। दुनिया में जिस तरह मनुष्य के माता-पिता उसका साथ देते है, ठीक उसी प्रकार अध्यात्म मार्ग में चलने के लिए गुरू की शरणागति अत्यंत आवश्यक है। क्योकि भगवान स्वयं कहते है कि अगर मुझे पाना है तो गुरू के पास जाओ, गुरू मेरा वाला ज्ञान सुनो और गुरू की बताई बातों को शत प्रतिशत पालन करने से ही कोई मनुष्य मुझ तक पहुंच सकता है।
तो आइए आज हम आपको इस वीडियो में बताते है कि आखिर कौन है जिसने प्रेमानंद महाराज की उंगली पकड़कर प्रेम मार्ग में चलना सिखाया।
बता दें प्रेमानंद महाराज आज के समय के ऐसे संत है जिन्हे बच्चा हो या बुजुर्ग सब ही सुनते है। हर कोई उनकी एक झलक पाने के लिए लाइन लगाकर घंटों इंतजार करते है। उन महाराज को प्रेम मार्ग में चलाने वाले संत आखिर कौन है...
दरअसल वृंदावन आने से पहले प्रेमानंद महाराज बनारस में ज्ञान मार्ग के सन्यासी थे लेकिन जब उन्होंने कृष्ण रासलीला देखी तो उनका हृदय परिवर्तित हो गया। और कुछ समय बाद वे वृंदावन आ गए। प्रेमानंद महाराज को उनको ज्ञानमार्गी से प्रेम मार्गी बनाने वाले गुरू का नाम संत श्री हित गौरांगी शरण महाराज है। प्रेमानंद महाराज की उनसे मुलाकात कैसे हुई इस बारे में जान लीजिये....
बात शुरू होती है प्रेमानंद महाराज के पहली बार मथुरा आने से। दरअसल जब प्रेमानंद महाराज मथुरा आए तो उन्हें महसूस हुआ कि यही तो वह जगह है जहां वे जाने कितने वर्षों से आना चाहते थे, इसके बाद वे बिहारी मंदिर गए और फिर उनका मंदिर उनका आना-जाना लगा रहा। ज्ञानमार्गी प्रेमानंद महाराज का प्रेम रस में डूबना आसान नहीं था क्योंकि ज्ञान मार्ग का व्यक्ति अपने तर्कों के आधारशिला पर ही हर चीज को फिट करना चाहता है। सालों पहले की बात है जब प्रेमानंद महाराज वृंदावन के राधाबल्लभ मंदिर गए थे तब उनकी मुलाकात वहां के तिलकायत अधिकारी मोहित महल गोस्वामी से हुई थी, इसके बाद मोहित महल गोस्वामी ने उनकी उलझन को दूर किया और राधा वल्लभ का नाम देते हुए वृंदावन के संत श्री हित गौरंगी शरण महाराज के पास भेजा। गौरांगी शरण महाराज को सभी दादा गुरु और बड़े महाराज जी के नाम से जानते हैं वह किसी से मिलते-जुलते नहीं है।
लेकिन गौरांगी महाराज जी ने श्री हित प्रेमानंद को अपनी शरण में ले लिया। और उन्हें राधावल्लभ संप्रदाय में दीक्षित किया। इसके बाद वर्षों तक प्रेमानंद महाराज बड़े महाराज की उंगली पकड़कर प्रेम मार्ग पर चलाया। इसके बाद प्रेमानंद जी महाराज धीरे-धीरे ज्ञान मार्ग की सीढ़ियां उतरते गए और अपने गुरु गौरंगी शरण दास महाराज के परम शिष्य बन गए गौरंगी शरण महाराज ने उन्हें वृंदावन की प्रेम रस महिमा को आत्मसात करने में मदद की। आज भी हर गुरुवार को प्रेमानंद जी महाराज अपने गुरु गौरांगी शरण जी से मिलने जाते हैं।
तब प्रेममार्गी प्रेमानंद जी महाराज ने गुरू के बारे में बतााया था कि
सनातन वैदिक धर्म में गुरु की महत्वता को बताने के लिए एक श्लोक चिरप्रचलित है जिसे अक्सर ही गुरू की वंदना के समय पढ़ा जाता है- गुरूर ब्रह्मा, गुरूर विष्णु, गुरूर देवो महेश्वरा
गुरू साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:
मतलब गुरू ब्रह्मा की तरह ईश्वरीय ज्ञान देता है। विष्णु की तरह उस दिए हुए ज्ञान की रक्षा करता है, और महेश्वर की तरह अज्ञान का नाश करता है। गुरू ब्रह्म के बराबर नहीं बल्कि सक्षात ब्रह्म ही होता है, ऐसे गुरू को हमारा नमस्कार है। शास्त्रों में मनुष्यों के लिए गुरू बनाते समय एक बात को बताया गया है कि गुरु केवल वहीं बनाने योग्य होता है जो श्रोत्रीय और ब्रह्मनिष्ठ हो, यानि जिसे भगवान का दर्शन मिल चुका हो और इसके साथ ही उसे सभी शास्त्रों वेदों का ज्ञान भी प्राप्त हो। इसके अलावा अगर किसी भी साधारण व्यक्ति को सिर्फ बाहरी गेरूआ परिधान देखकर गुरू बनाते है तो उससे मनुष्य को भगवान नहीं मिल सकता है। औऱ जब गुरू मिल जाए तो भगवान स्वयं कहते है कि अगर किसी व्यक्ति को वास्तविक गुरू मिल जाए तो वह मनुष्य अवश्य ही मुझे पा लेता है।
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