मैं तो यही समझता था कि यह संकीर्तन प्रेमी कोई रसिक हैं। मैंने कितनी बार इनको कृष्ण के वियोग में रोते, तड़पते, बिलखते देखा है। नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होती रहती है, मानों नेत्र वर्षा ऋतु बन गए हों। शरीर की कोई सुधि-बुधि नहीं रहती, बेसुध हो जाते हैं। घंटों घंटों मूर्छित रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है उस अवस्था को देख कर कि इनको असहाय वेदना हो रही है।
उन्होने स्वीकार किया कि चारों जगद्गुरुओं के सिद्धांतों का समन्वय करने वाला यह कोई अवतारी पुरुष ही है,इतनी अल्पायु में इतना अधिक ज्ञान साधारण प्रतिभा से असंभव है।
लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व अद्वैतवादी जगद्गुरु श्री शंकराचार्य,
लगभग आठवीं नवीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य,
12वीं शताब्दी में विशिष्टाद्वैतवादी जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य
एवं लगभग14वीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य हुए।
सभी के सिद्धान्तों में थोड़ा-थोड़ा मतभेद रहा है,वह भले ही देश काल-परिस्थिति के कारण रहा है।
जगद्गुरु श्री शंकराचार्य का सिद्धान्त बिलकुल अलग है और तीनों जगद्गुरुओं के सिद्धांतों से।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से सभी जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों का वेद-शास्त्र सम्मत समन्वय सुनकर काशी के विद्वान विस्मय से अभिभूत हो नतमस्तक हो गये। अत: उन सबने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि श्री कृपालुजी जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम हैं।
तत्पश्चात काशी के प्रख्यात पंडित, शास्त्रार्थ महाविद्यालय के संस्थापक, शास्त्रार्थ महारथी, सर्वमान्य एवं अग्रगण्य दार्शनिक काशी विद्वत परिषत के प्रधान आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षटशास्त्री ने जो घोषणा की थी उसका अंश इस प्रकार है।
"काशी के पंडित आसानी से किसी को समस्त शास्त्रों का विद्वान स्वीकार नहीं करते। हम लोग तो पहले शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारते हैं। हम उसे हर प्रकार से कसौटी पर कसते हैं और तब उसे शास्त्रज्ञ स्वीकार करते हैं। हम आज इस मंच से विशाल विद्वन्मंडल को यह बताना चाहते हैं कि हमने संताग्रगण्य श्री कृपालुजी महाराज की भगवतदत्त प्रतिभा को पहचाना है और हम आपको सलाह देना चाहते हैं कि आप भी उनको पहचानें,और इनसे लाभ उठाएँ।
आप लोगों के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके बीच आए हैं। काशी समस्त विश्व का गुरुकुल है। हम उसी काशी के निवासी यहाँ बैठे हुए हैं,कल श्री कृपालुजी महाराज के अलौकिक वक्तव्य को सुनकर हम सब नतमस्तक हो गये।
हम चाहते हैं कि लोग श्री कृपालुजी महाराज को समझें और इनके संपर्क में आकर इनके सरल,सरस,अनुभूत एवं विलक्षण उपदेशों को सुनें तथा अपने जीवन में उसे क्रियात्मक रूप से उतार कर अपना कल्याण करें।"
कृपालु जी महाराज की कुछ विलक्षण बातें -
1 - ये पहले जगद्गुरु हैं जिनका कोई गुरु नहीं है और वे स्वयं जगद्गुरुतम हैं । कृष्णं वंदे जगद्गुरु !
2 - ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने एक भी शिष्य नहीं बनाया किन्तु इनके लाखों अनुयायी हैं ।
3 - ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने गृहस्थ आश्रम में रहकर भक्ति का प्रचार किया और दीर्घायु रहे तथा अपने जीवन काल में स्वयं अपने भक्तों के साथ जगद्गुरुतम उपाधि की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई ।
4 - ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने ज्ञान एवं भक्ति दोनों में सर्वोच्चता प्राप्त की व दोनों का मुक्तहस्त से दान किया ।
5- ये पहले जगद्गुरु हैं जो विदेशों में भी स्वयं प्रचार करने गये एवं घोर से घोर विषयासक्त को भी अपनी सेवा का अवसर दिया (महापुरुष की सेवा को शास्त्रों में बहुत ही दुर्लभ अवसर या भगवत कृपा से ही प्राप्य कहा जाता है )
6- ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने पूरे विश्व में श्री राधाकृष्ण की माधुर्य भक्ति का धुआंधार प्रचार किया एवं सुमधुर 'श्री राधे नाम' को विश्वव्यापी बना दिया । इसके पूर्व श्री राधाकृष्ण की ऐसी भक्ति का विषय में बहुत ही गुप्त था , यहाँ तक कि भागवत में भी इसका स्पष्ट निरूपण नहीं है |
7- सभी महान सन्तों ने मन से ही ईश्वर भक्ति करने की बात बतायी है , जिसे , ध्यान , सुमिरन , स्मरण या मेडीटेशन आदि नामों से बताया गया है । श्री कृपालु जी ने प्रथम बार इस ध्यान को रूपध्यान ' नाम देकर स्पष्ट किया कि ध्यान कि सार्थकता तभी है जब हम भगवान के किसी मनोवांछित रूप का चयन करके उस रूप पर ही मन को टिकाये रहें । मन को भगवान के किसी एक रूप पर केन्द्रित करने का नाम ही ध्यान या मन से भक्ति करना है , क्योंकि भगवान के ही एक रूप पर मन को न टिकने से , मन यत्र तत्र संसार में ही भागता रहेगा । भगवान को तो देखा नहीं , फिर उनके रूप का ध्यान कैसे किया जाये , उसका क्या विज्ञान है , उसका अभ्यास कैसे करना है , आदि बातों को भक्तिरसामृत सिन्धु , नारद भक्ति सूत्र , ब्रह्मसूत्र आदि के द्वारा प्रमाणित करते हुए श्री कृपालु जी महाराज ने प्रथम बार अपने ग्रन्थ ' प्रेम रस सिद्धान्त ' में तथा अपने शताधिक प्रवचनों में बड़े स्पष्ट रूप से समझाया है।
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