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BGSM: वाराणसी के विद्वानों ने पहली बार सर्वसम्मति से 34 साल के युवा को बनाया जगद्गुरु, माना इसमें है अलौकिक लक्षण


भक्ति या दिव्य प्रेम तत्व जिसके अधीन स्वयं भगवान भी हैं, उस भक्ति रस की सर्वश्रेष्ठ परिणति का नाम महाभाव है और महाभाव का मूर्तिमान विग्रह हैं श्रीराधा। श्रीकृष्ण उन्हीं श्री राधा के अभिन्न स्वरूप हैं किन्तु लीला दृष्टि से वे रसिक शिरोमणि भी हैं|  प्रेम रस  और प्रेम रस रसिक दोनों का अपूर्व सम्मिश्रण है युगल रस और इसी युगल रस के मूर्तिमान स्वरूप हैं – भक्तियोग रसवातार जगद्गुरु कृपालु जी महाराज | 


14 जनवरी 1957 की बात है। काशी के मूर्धन्य 500 शास्त्रज्ञ विद्वानों की सभा में 34 वर्ष की अल्पायु वाले एक युवक ने अपनी अलौकिक वाणी और प्रतिभा से सभी को मंत्र-मुग्ध कर दिया था । उनके कठिन वैदिक संस्कृत में दिये गये 9 दिन के विलक्षण प्रवचन को सुनकर विद्वत समाज के आश्चर्य की सीमा नहीं थी । सभी के मन में जिज्ञासा हुई, 'ये कौन है?' इनके ज्ञान को देखकर लगता है कि यह कोई अवतारी महापुरुष हैं अथवा ये कोई कायाकल्प किए हुए योगी हैं क्योंकि इतना अधिक ज्ञान तो हजारों वर्षों के अध्ययन के पश्चात भी संभव नहीं हैं। कारण कि ये एक दो , तीन शास्त्र से नहीं , उन शास्त्रों से भी प्रमाण दे रहे हैं जिनके हमने केवल नाम सुने हैं | अलौकिक ज्ञान का समुद्र, आकर्षक व्यक्तित्व और दिव्य प्रेम युक्त हृदय के दर्शन कर सभी विद्वानों के मानस पटल पर प्रश्नचिन्ह अंकित हो गया 'ये कौन हैं?'


हनुमान प्रसाद महाबनी जी जो इन युवक के साथ आये थे, उन्हीं से लोगों ने पूछा | उनका उत्तर सुनकर विद्वानों ने शायद अनुमान लगा लिया होगा कि राम कृपालु नाम का यह युवक कौन हो सकता है ! महाबानी जी ने बताया था “अधिक तो मैं भी इनके विषय में नहीं बता सकता, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि इनके अंदर ज्ञान का अगाध समुद्र छिपा हुआ है। मेरे पास तो ये पिछले कुछ वर्षों से आते हैं, मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि ये वैदिक संस्कृत में पारंगत हैं। कब, कहाँ शास्त्रों वेदों का अध्ययन किया यह मेरे लिए भी अब इनका प्रवचन सुनकर प्रश्न बन गया है, कभी कोई शास्त्र वेद की पुस्तक इनको पढ़ते हुए मैंने नहीं देखा। रामायण, भागवत, गीता कुछ भी कभी इनके पास कभी नहीं देखा। ये तो अपने पास कोई सामान भी नहीं रखते हैं, यहाँ तक की पहनने के कपड़े तक भी साथ लेकर नहीं चलते, जिसके घर जाते हैं उसी के कपड़े पहन लेते हैं और अपने कपड़े वहाँ छोड़ देते हैं।
मैं तो यही समझता था कि यह संकीर्तन प्रेमी कोई रसिक हैं। मैंने कितनी बार इनको कृष्ण के वियोग में रोते, तड़पते, बिलखते देखा है। नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होती रहती है, मानों नेत्र वर्षा ऋतु बन गए हों। शरीर की कोई सुधि-बुधि नहीं रहती, बेसुध हो जाते हैं। घंटों घंटों मूर्छित रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है उस अवस्था को देख कर कि इनको असहाय वेदना हो रही है।


अश्रु ,स्वेद,रोमांच,कंप,विवर्णता सभी सात्विक भाव इनके अंदर प्रकट हुए देखके तो मुझे अनेक बार लगा कि ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। आज समस्त शास्त्रों - वेदों के अलौकिक ज्ञान को देखकर मैं भी आश्चर्य चकित हूँ। मेरा तो इनके प्रति वात्सल्य भाव रहा है, जब इन्होंनें कहा कि मैं जगद्गुरु बनने जा रहा हूँ तो मैंने इनसे कहा,'जा जा शीशे में अपना मुँह देख ले,कहीं ऐसा न हो मेरी नाक कटा दे'। लेकिन आज इनकी दिव्य वाणी को सुनकर काशी जो विश्व का गुरुकुल है,यहाँ के सभी विद्वान नतमस्तक हो गए हैं। मैं यही सोच रहा हूँ कि क्या ये वही युवक हैं जो मेरे पास रहकर संकीर्तन द्वारा प्रेम सुधारस का पान सभी भावुक भक्तों को कराते थे , या कोई और। मैं यही सोच रहा हूँ ये कौन हैं??????


ये कौन हैं? पश्चात समस्त विद्वानों ने एकमत होकर आपको "#जगद्गुरूत्तम" की उपाधि से विभूषित किया।

उन्होने स्वीकार किया कि चारों जगद्गुरुओं के सिद्धांतों का समन्वय करने वाला यह कोई अवतारी पुरुष ही है,इतनी अल्पायु में इतना अधिक ज्ञान साधारण प्रतिभा से असंभव है।

लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व अद्वैतवादी जगद्गुरु श्री शंकराचार्य,
लगभग आठवीं नवीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य,
12वीं शताब्दी में विशिष्टाद्वैतवादी जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य
एवं लगभग14वीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य हुए।

सभी के सिद्धान्तों में थोड़ा-थोड़ा मतभेद रहा है,वह भले ही देश काल-परिस्थिति के कारण रहा है।
जगद्गुरु श्री शंकराचार्य का सिद्धान्त बिलकुल अलग है और तीनों जगद्गुरुओं के सिद्धांतों से।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से सभी जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों का वेद-शास्त्र सम्मत समन्वय सुनकर काशी के विद्वान विस्मय से अभिभूत हो नतमस्तक हो गये। अत: उन सबने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि श्री कृपालुजी जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम हैं।

तत्पश्चात काशी के प्रख्यात पंडित,  शास्त्रार्थ महाविद्यालय के संस्थापक,  शास्त्रार्थ महारथी,  सर्वमान्य एवं अग्रगण्य दार्शनिक काशी विद्वत परिषत के प्रधान आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षटशास्त्री ने जो घोषणा की थी उसका अंश इस प्रकार है।

 "काशी के पंडित आसानी से किसी को समस्त शास्त्रों का विद्वान स्वीकार नहीं करते। हम लोग तो पहले शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारते हैं। हम उसे हर प्रकार से कसौटी पर कसते हैं और तब उसे शास्त्रज्ञ स्वीकार करते हैं। हम आज इस मंच से विशाल विद्वन्मंडल को यह बताना चाहते हैं कि हमने संताग्रगण्य श्री कृपालुजी महाराज की भगवतदत्त प्रतिभा को पहचाना है और हम आपको सलाह देना चाहते हैं कि आप भी उनको पहचानें,और इनसे लाभ उठाएँ।

आप लोगों के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके बीच आए हैं। काशी समस्त विश्व का गुरुकुल है। हम उसी काशी के निवासी यहाँ बैठे हुए हैं,कल श्री कृपालुजी महाराज के अलौकिक वक्तव्य को सुनकर हम सब नतमस्तक हो गये।
हम चाहते हैं कि लोग श्री कृपालुजी महाराज को समझें और इनके संपर्क में आकर इनके सरल,सरस,अनुभूत एवं विलक्षण उपदेशों को सुनें तथा अपने जीवन में उसे क्रियात्मक रूप से उतार कर अपना कल्याण करें।"


अगले दिन सभी 500 विद्वानों की स्वीकृति से 14 जनवरी 1957 को कृपालु जी महाराज को "जगद्गुरुत्तम"  की उपाधि से विभूषित किया गया । इसलिये आज का दिन हम सभी साधकों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है ।
कृपालु जी महाराज की कुछ विलक्षण बातें - 
1 - ये पहले जगद्गुरु हैं जिनका कोई गुरु नहीं है और वे स्वयं जगद्गुरुतम हैं । कृष्णं वंदे जगद्गुरु ! 
2 - ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने एक भी शिष्य नहीं बनाया किन्तु इनके लाखों अनुयायी हैं ।
3 - ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने गृहस्थ आश्रम में रहकर भक्ति का प्रचार किया और दीर्घायु रहे तथा अपने जीवन काल में स्वयं अपने भक्तों के साथ जगद्गुरुतम उपाधि की पचासवीं वर्षगाँठ मनाई ।
4 - ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने ज्ञान एवं भक्ति दोनों में सर्वोच्चता प्राप्त की व दोनों का मुक्तहस्त से दान किया ।
5- ये पहले जगद्गुरु हैं जो विदेशों में भी स्वयं प्रचार करने गये एवं घोर से घोर विषयासक्त को भी अपनी सेवा का अवसर दिया (महापुरुष की सेवा को शास्त्रों में बहुत ही दुर्लभ अवसर या भगवत कृपा से ही प्राप्य कहा जाता है ) 
6- ये पहले जगद्गुरु हैं जिन्होंने पूरे विश्व में श्री राधाकृष्ण की माधुर्य भक्ति का धुआंधार प्रचार किया एवं सुमधुर  'श्री राधे नाम' को विश्वव्यापी बना दिया । इसके पूर्व श्री राधाकृष्ण की ऐसी भक्ति का विषय में बहुत ही गुप्त था , यहाँ तक कि भागवत में भी इसका स्पष्ट निरूपण नहीं है | 

7- सभी महान सन्तों ने मन से ही ईश्वर भक्ति करने की बात बतायी है , जिसे , ध्यान , सुमिरन , स्मरण या मेडीटेशन आदि नामों से बताया गया है । श्री कृपालु जी ने प्रथम बार इस ध्यान को रूपध्यान ' नाम देकर स्पष्ट किया कि ध्यान कि सार्थकता तभी है जब हम भगवान के किसी मनोवांछित रूप का चयन करके उस रूप पर ही मन को टिकाये रहें । मन को भगवान के किसी एक रूप पर केन्द्रित करने का नाम ही ध्यान या मन से भक्ति करना है , क्योंकि भगवान के ही एक रूप पर मन को न टिकने से , मन यत्र तत्र संसार में ही भागता रहेगा । भगवान को तो देखा नहीं , फिर उनके रूप का ध्यान कैसे किया जाये , उसका क्या विज्ञान है , उसका अभ्यास कैसे करना है , आदि बातों को भक्तिरसामृत सिन्धु , नारद भक्ति सूत्र , ब्रह्मसूत्र आदि के द्वारा प्रमाणित करते हुए श्री कृपालु जी महाराज ने प्रथम बार अपने ग्रन्थ ' प्रेम रस सिद्धान्त ' में तथा अपने शताधिक प्रवचनों में बड़े स्पष्ट रूप से समझाया है।

कृपालु जी महाराज ने न केवल तत्कालीन मनुष्यों पर कृपा की बल्कि उनके बाद मानव जन्म लेने वालों की सोच कर सनातन धर्म की सम्पूर्ण विश्व में पुनरप्रतिष्ठा के उद्देश्य से 'भक्तियोग मण्डल' की स्थापना की । सनातन धर्म के वास्तविक ज्ञान को जन जन तक पहुचाने हेतु आपकी प्रबल भावना के कारण ही आपने ग्रंथों, भव्य स्मारकों , प्रशिक्षित प्रचारकों, समर्पित साधकों को तैयार किया है जो आज उनके अप्रकट होने के पश्चात भी उनके संदेशों का यथावत प्रचार प्रसार कर रहे हैं | 






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