ब्रह्मसूत्र कहता है- कितना भी कोई ऊंचे स्तर का अध्यात्मवादी यानी परमहंस ही क्यों न हो, खाना-पीना सांस लेना आदि उसको भी करना पड़ता है। उसको भी पंच तत्वों से काम लेना पड़ता है ।
अगर हम बाहर के संसार को नहीं मानेंगे तो हमारे शरीर का संतुलन बिगड़ जाएगा । उसी प्रकार यदि हम अंतःकरण की उपेक्षा करेंगे तो मानसिक संतुलन गड़बड़ हो जाएगा। जैसे अध्यात्मवादी को भौतिकवादी की आवश्यकता है, उसी प्रकार भौतिकवादी को अध्यात्मवाद की की नितांत आवश्यकता है ।
देखिए , तीन ही तत्व होते हैं जड़, चेतन और जड़ -- चेतन का शासक ईश्वर। इनमें हम जड़ और चेतन को तो जानते हैं क्योंकि इनको आंखों से देखते हैं लेकिन ईश्वर को नहीं जानते क्योंकि वह आंखों से नहीं दिखता, न किसी भी इंद्रिय से हमारे अनुभव में आता है। पुनः इसका मतलब यह भी है कि हमारे अतिरिक्त दो ही चीज हैं एक संसार और दूसरा भगवान। अब हम चाहें तो संसार को अपनाए यानि भौतिकवादी बनें और चाहे तो भगवान को अपनाए और अध्यात्मवादी बनें।
विश्व की प्रगति में अध्यात्म कैसे सहायक है?
पर झगड़ा तो इसी बात का है न कि हम दोनों में से एक ही बन सकते हैं और हमें दोनों की आवश्यकता है। न हम संसार के बिना रह सकते हैं न ही हम भगवान के बिना रह सकते हैं। इसका कारण क्या है?
इसका कारण है कि हम दो हैं - एक तो शरीर और दूसरा आत्मा। इसमें मैं शरीर हूं ये सब अनुभव भी करते हैं और दूसरा हम आत्मा हैं ये केवल मरने पर ही प्रकट होता है। रामचरित मानस में वर्णन है कि जब बाली के मृत शरीर को देख कर उसकी पत्नी तारा रोने लगी तो भगवान राम ने ज्ञान चक्षु प्रदान करते हुए कहा -
*प्रकट सो तनु तव आगे सोवा।
जीव नित्य तुम केही लगी रोवा।।*
यानी अगर शरीर को अपना पति कह कर रो रही हो, तो वह पति का शरीर तो तुम्हारी आंखों के सामने पड़ा है। और आत्मा के लिए रो रही हो, तो वह तो नित्य है और कभी मरता नहीं।
वास्तव में इतना सा ज्ञान अगर हम धारण कर लें तो कोई भी अध्यात्मवादी भौतिकवाद को और कोई भी भौतिकवादी अध्यात्मवाद को नकारेगा नहीं। दोनों के लिए बराबर प्रयत्न किया जायेगा, बिल्कुल नपा तुला! १२ घंटे शरीर के लिए तो १२ घंटे आत्मा के बनते हैं। जायज़ है! लेकिन, भगवान की इतनी रियायत है हम जीवों पर कि श्री महाराज जी कहते हैं कि तुम आत्मा के लिए घंटे भर ही सही सही दो, तो दस दिन में कितने आगे बढ़ जाओगे!
अध्यात्मवाद और भौतिकवाद का ऐसा अद्भुत समन्वय
प्रेम रस सिद्धांत ऐसा ग्रंथ है जिसमें संसार, भगवान और जीव संबंधी जिज्ञासाओं के समाधान को अत्यंत सरल हिन्दी भाषा में कृपालु जी महाराज ने प्रस्तुत किया है। यूं कह लिजिए गागर में सागर है ये ग्रंथ!
मैं हर एक प्रकाशन में इसी पुस्तक के किसी एक सिद्धांत पर विचार प्रस्तुत करूंगी और इस क्रम में आपके उन सभी प्रश्नों का स्वागत करना चाहूंगी जिसके कारण अध्यात्मवाद को अपने जीवन में अपनाने से आपको हिचक होती है।
0 टिप्पणियाँ
अगर आप किसी टॉपिक पर जानकारी चाहते है,तो कॉमेंट करें।